मंगलवार, फ़रवरी 12, 2008

एक गोली रोजाना का कुचक्र



एक समय हुआ करता था कि बुज़ुर्ग लोग कहा करते थे कि जब बीमारी खत्म हो गयी है तो दवा नहीं खाना बल्कि खाना तो क्या घर में भी मत रखना चाहिए वरना बीमारी फिरसे लौट आती है । हमारी आयुविषायक सोच जिसे हम आयुर्वेद के द्वारा जानते हैं किन्तु दुर्भाग्य है कि मुख्यधारा (?) के लोग उसे मात्र एक असभ्य और गंवारू चिकित्सा पद्धति मानते हैं ;वह भी हमे यही सिखाता है कि रोग की समाप्ति के उपरांत औषधि की आवश्यकता समाप्त हो जाती है क्योंकि औषधि तो मात्र किन्हीं दोषों के कारण उत्पंन विकार के निर्मूलन के हेतु होती है एवं जब देह के धारकों कफ-पित्त-वात में साम्यावस्था आ जाती है तो औषधि की आवश्यकता भी समाप्त हो जाती है ।
बहुराष्ट्रीय कंपनिया जब तक आयुर्वेद को नहीं समझ पातीं तब तक उसे हाशिए पर ढकेले रहेंगी । इन कंपनियॊं ने अपना सारा धन व श्रम एक निर्धारित दिशा में ही लगाया है कि किस तरह वे विकासशील देशों को अपनी प्रयोगशाला व बाजार बना सकें ।
एक बात की तरफ तो हमारा ध्यान ही नहीं जाता है कि ऐलोपैथी ने जिन बीमारियों का इलाज खोजा है वे किस हद तक कारगर हैं जैसे कि अस्थमा (दमा) ,हाई या लो ब्लडप्रेशर ,डायबिटीज या फिर परिवार नियोजन की बात हो जब तक आप दवा लेते हैं तभी तक प्रभाव होता है अन्यथा फिर वैसी ही स्थिति हो जाती है यानि कि एक गोली रोज़ाना लीजिए और अब तो एड्स के लिए भी ऐसी गोली पेश कर दी गयी है जो कि रोज़ाना लेने से एड्स का रोगी स्वस्थ जीवन बिता सकेंगे और जब तक जीवन है आप किसी भी रोग से
पीड़ित हो गए तो यदि आप ऐलोपैथी का चुनाव करते हैं तो फिर शेष जीवन आप इन कंपनियों के ग्राहक बन जाते हैं और आप अपनी मेहनत की कमाई का एक अंश जीवन भर इन्हें देते रहते हैं या फिर तंग आकर अंततः तमामोतमाम जटिलताएं लेकर आयुर्वेद की शरण में आते हैं तो क्यों न प्रारंभ से ही आयुर्वेद अपनाएं और इन बहुराष्ट्रीय कंपनियॊं के एक गोली रोजाना के कुचक्र से सावधान रहें ।

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